हल्बा जनजाति की पारंपरिक वेशभूषा व सौंदर्य प्रसाधन
हल्बा जनजाति के पुरूष और स्त्रियों का शारीरिक श्रृंगार हमेशा से उतकृष्टता व आकर्षकता लिए हुए है। अन्य जनजातियों की तुलना में हल्बा जनजाति के पुरूष व स्त्रियों का वस्त्र परिधान व श्रृंगारशैली ज्यादा उन्नत नजर आती है। सामान्यतः इस समुदाय के पुरूष लंगोटी, धोती-कुर्ता, पटका,बनियान,सलुका,बारी (कान में), चूड़ा (हाथ में),लुढ़की (कान में),करधन (धागे से बनी) व सिर पर पगड़ी जैसे वस्त्र धारण करते हैं। कालांतर में पुरूषों ने लूँगी पहनना भी शुरू कर दिया। हल्बा समुदाय की स्त्रियाँ अपने शरीर में पटका,लुगा (साड़ी),पोलखा(ब्लाऊज) पहनती हैं। इस समुदाय की स्त्रियाँ प्रारंभ से ही शारीरिक श्रृंगार के प्रति सजग दिखाई देती हैं। अपनी शारीरिक सुंदरता को बनाए रखने के लिए वे अपने कानों में खिलवा,लुरकी,बनुरिया तथा पोहची या कर्णफूल पहनती हैं जो कि पीतल, चाँदी व ताँबा आदि की बनी होती है। स्त्रियाँ कमर में चाँदी से बनी करधन(गिलर) तथा गले में सुतिया, गिलर (सिक्कों की माला)सरिया, हंसली, धमेल या सुर्रा सुर्डा धारण करती हैं। पैरों में पैरपटी (पायल),तोड़ा या साँटी,लच्छा व पैरों की ऊँगलियों में बिछिया, चुटकी पहनती हैं। कलाई में ऐंठी,ककना,गुलेठा,नागमोटी,व नाक में फुली या लौंग पहनती हैं। सिर पर लकड़ी से बनी पनिया व फूँदरा धारण करती हैं। ये परंपरागत रूप से अपने हाथों की ऊँगलियों में मुंदरी(भउरहीं),मुंदी (अंगुठी) भी पहनती हैं। शारीरिक श्रृंगार के प्रति उनकी ललक तथा प्राचीन वैभवशाली परंपरा के पोषक हल्बा जनजाति की स्त्रियों में आभूषण प्रेम सदैव से परिपूरित रहा है। वहीं वे नश्वर शरीर की महत्ता को भली प्रकार से स्वीकारतीं एक विशेष पहचान के रूप में सदैव अमर बनाने की मंशा लिए अपने ठुड्डी एवं नाक के बगल में गोदना गुदवाती हैं। कई स्त्रियाँ अपने बाँह व हाथों के ऊपरी भाग तथा पैरों में भी *गोदना* से श्रृंगार करती हैं। लेखक डॉ. रामकुमार बेहार व डॉ. दिनेश कुमार राठौर की किताब 'काँकेर का इतिहास' पेज नं. 24 में उल्लेख किया गया है,वे लिखते हैं कि - 'एक ऐसी अलंकरण प्रणाली का नाम गोदना है,जिसका संबंध सीधे लोक संस्कृति से जुड़ता है। जहाँ त्वचा चित्रांकन का नाम गोदना है वहीं त्वचा-चित्र को भी गोदना कहते हैं। मानव जीवन में सौंदर्य बोध का इतिहास जितना प्राचीन है,गोदने का अलंकरण इतिहास भी लगभग उतना ही प्राचीन है। प्रागैतिहासिक गुफा-चित्र यह प्रमाणित करते हैं कि गुफ में रहने वाले मनुष्य सौंदर्य से परिचित थे। गोदना अलंकरण सहज,सुलभ होने के कारण भी लोकांचल में अधिक लोकप्रिय हो सका।
आगे लिखते हैं कि काँसा, ताँबा, पीतल और सोना-चाँदी के जेवर तथा अन्य आभूषण साथ नहीं देते। गोदना को कोई चुरा नहीं सकता, छीन नहीं सकता, हिस्से में माँग नहीं सकता, उतार नहीं सकता। इतने सस्ते में इतना स्थायी आभूषण गोदना के शिवाय संसार में कोई दूसरा अलंकरण नहीं हो सकता।'
उक्त लेखकद्वय के विचारों में कुछ हद तक गोदना की पारंपरिक मान्यताओं को बल जरूर मिलता है। शायद यही कारण हो कि हल्बा समुदाय की युवतियों व महिलाओं के द्वारा गोदना गुदवाने की परंपरा विकसित हुई।