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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

शुक्रवार, जनवरी 19, 2024

हल्बा जनजाति की पारंपरिक वेशभूषा व सौंदर्य प्रसाधन

हल्बा जनजाति के पुरूष और स्त्रियों का शारीरिक श्रृंगार हमेशा से उतकृष्टता व आकर्षकता लिए हुए है। अन्य जनजातियों की तुलना में हल्बा जनजाति के पुरूष व स्त्रियों का वस्त्र परिधान व श्रृंगारशैली ज्यादा उन्नत नजर आती है। सामान्यतः इस समुदाय के पुरूष लंगोटी, धोती-कुर्ता, पटका,बनियान,सलुका,बारी (कान में), चूड़ा (हाथ में),लुढ़की (कान में),करधन (धागे से बनी) व सिर पर पगड़ी जैसे वस्त्र धारण करते हैं। कालांतर में पुरूषों ने लूँगी पहनना भी शुरू कर दिया। हल्बा समुदाय की स्त्रियाँ अपने शरीर में पटका,लुगा (साड़ी),पोलखा(ब्लाऊज) पहनती हैं। इस समुदाय की स्त्रियाँ प्रारंभ से ही शारीरिक श्रृंगार के प्रति सजग दिखाई देती हैं। अपनी शारीरिक सुंदरता को बनाए रखने के लिए वे अपने कानों में खिलवा,लुरकी,बनुरिया तथा पोहची या कर्णफूल पहनती हैं जो कि पीतल, चाँदी व ताँबा आदि की बनी होती है। स्त्रियाँ कमर में चाँदी से बनी करधन(गिलर) तथा गले में सुतिया, गिलर (सिक्कों की माला)सरिया, हंसली, धमेल या सुर्रा सुर्डा धारण करती हैं। पैरों में पैरपटी (पायल),तोड़ा या साँटी,लच्छा व पैरों की ऊँगलियों में बिछिया, चुटकी पहनती हैं। कलाई में ऐंठी,ककना,गुलेठा,नागमोटी,व नाक में फुली या लौंग पहनती हैं। सिर पर लकड़ी से बनी पनिया व फूँदरा धारण करती हैं। ये परंपरागत रूप से अपने हाथों की ऊँगलियों में मुंदरी(भउरहीं),मुंदी (अंगुठी) भी पहनती हैं। शारीरिक श्रृंगार के प्रति उनकी ललक तथा प्राचीन वैभवशाली परंपरा के पोषक हल्बा जनजाति की स्त्रियों में आभूषण प्रेम सदैव से परिपूरित रहा है। वहीं वे नश्वर शरीर की महत्ता को भली प्रकार से स्वीकारतीं एक विशेष पहचान के रूप में सदैव अमर बनाने की मंशा लिए अपने ठुड्डी एवं नाक के बगल में गोदना गुदवाती हैं। कई स्त्रियाँ अपने बाँह व हाथों के ऊपरी भाग तथा पैरों में भी *गोदना* से श्रृंगार करती हैं। लेखक डॉ. रामकुमार बेहार व डॉ. दिनेश कुमार राठौर की किताब 'काँकेर का इतिहास' पेज नं. 24 में उल्लेख किया गया है,वे लिखते हैं कि - 'एक ऐसी अलंकरण प्रणाली का नाम गोदना है,जिसका संबंध सीधे लोक संस्कृति से जुड़ता है। जहाँ त्वचा चित्रांकन का नाम गोदना है वहीं त्वचा-चित्र को भी गोदना कहते हैं। मानव जीवन में सौंदर्य बोध का इतिहास जितना प्राचीन है,गोदने का अलंकरण इतिहास भी लगभग उतना ही प्राचीन है। प्रागैतिहासिक गुफा-चित्र यह प्रमाणित करते हैं कि गुफ में रहने वाले मनुष्य सौंदर्य से परिचित थे। गोदना अलंकरण सहज,सुलभ होने के कारण भी लोकांचल में अधिक लोकप्रिय हो सका। 

    आगे लिखते हैं कि काँसा, ताँबा, पीतल और सोना-चाँदी के जेवर तथा अन्य आभूषण साथ नहीं देते। गोदना को कोई चुरा नहीं सकता, छीन नहीं सकता, हिस्से में माँग नहीं सकता, उतार नहीं सकता। इतने सस्ते में इतना स्थायी आभूषण गोदना के शिवाय संसार में कोई दूसरा अलंकरण नहीं हो सकता।'

   उक्त लेखकद्वय के विचारों में कुछ हद तक गोदना की पारंपरिक मान्यताओं को बल जरूर मिलता है। शायद यही कारण हो कि हल्बा समुदाय की युवतियों व महिलाओं के द्वारा गोदना गुदवाने की परंपरा विकसित हुई।

शुक्रवार, जनवरी 19, 2024

परलकोट- मुक्ति संग्राम के नायक शहीद गेंदसिंह (बाऊ) नायक (1825 ई.)

 *परलकोट- मुक्ति संग्राम के नायक*


 शहीद गेंदसिंह (बाऊ) नायक (1825 ई.)


1809 ई. में भोंसला आक्रमण के पश्चात दरियाव देव,महिपाल देव पर अनेकों वर्षों का बकाया टाकोली नागपुर के भोंसला शासकों को देना था इस बकाया राशि के बदले 1830 में सिहावा परगना नागपुर के केवल 5 गाँव उसकी माँ के अधिकार में थे उन 5 गाँवों को छोड़कर शेष सिहावा क्षेत्र नागपुर राजा के अधीन चला गया। भोंसलों की दुर्बलता के कारण 1818 ई. के पश्चात छत्तीसगढ़ सूबा का प्रशासन ब्रिटिश शासन के अधिकारियों के अधीन चला गया। इसी अवधि में- उत्तर-बस्तर में 640 वर्ग मील में विस्तारित जमींदारी परलकोट के अधीन 165 गाँव थे। परलकोट के जमींदार को भूमिया की उपाधि मिली थी। परलकोट बस्तर की सबसे पुरानी राजधानी मानी जाती है। प्राचीन काल में इसे राज्य का दर्जा मिला हुआ था और यह सप्त माड़िया राज्यों में से एक थी। जमींदारी का क्षेत्र चांदा से मिला हुआ था। 

     1825 ई. में गेंदसिंह के नेतृत्व में सुलग रहे परलकोट आँदोलन-आदिवासी आँदोलन था। जिसके माध्यम से अबूझमाड़ के आदिवासी लूटखसोट और शोषण रहित समाज की रचना करना चाहते थे। मराठों और अंग्रेजों के शोषण और दमन नीति पर नियंत्रण रखने के लिए संघर्ष था अंग्रेज अधिकारियों को पाठ पढ़ाने के लिए एक अभ्यास था।

   परलकोट के अबूझमाड़ियों के आह्वान पर बस्तर के सभी अबूझमाड़िया 24 दिसंबर 1824 से संबध्द होने लगे। उनका यह आँदोलन 4 जनवरी 1825 तक चांदा से अबूझमाड़ की पट्टी में छाया हुआ था। इस बीच ये एक ऐसा सुनहरा संसार बनाना चाहते थे जो इनके मिथकीय हीरों कर्ण के संसार से मिलता-जुलता हो।

   सच तो यह है कि बस्तर में मराठों और ब्रिटिश अधिकारियों की उपस्थिति से इन्हें अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था तभी से ये आशंकित और उद्दग्न हो उठे थे। परदेशी सभ्यता से ये खतरा महसूस करने लगे थे। विवरण के अनुसार ये अपने बाणों और भालों को तभी से नुकीला बना रहे थे।

   यह आँदोलन परलकोट जमींदार की प्रारंभिक स्थिति में उनका आक्रोश,शोषक कतिपय बंजारों के विरुद्ध था। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मराठा सेना इस पर कोई हस्तक्षेप नहीं कर रही है, तो वे अधिक आक्रामक हो गये। शीघ्र ही उन्होंने मराठा तथा अंग्रेज अधिकारियों पर भी घात लगाना प्रारंभ कर दिया।

   मराठों और अंग्रेज अधिकारियों के बाद बस्तर में बसे हुए विदेशी उनके आक्रोश के लक्ष्य बने। चांदा से संलग्न क्षेत्र में इनका बहुत अधिक आतंक फैल गया।

    एगन्यू ने 1 जनवरी 1825 तथा 4 जनवरी 1825 के अपने पत्र में उक्त आँदोलन को विद्रोह निरूपित करते हुए लिखा है कि साल भर चलनेवाले इस विद्रोह के कारण इस अंचल में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी है। धनु,बाण,कुल्हाड़ी तथा भाला लेकर ये हजारों की संख्या में एक साथ निकलते हैं तथा लोगों के घरों को जलाकर रक्तरंजित हाथों से वापस लौटते हैं। एगन्यू की पहल पर जब चांदा से सेना आ गयी तो,इन विद्रोहियों ने छापामार युध्द प्रारंभ कर दिया।

    महिलाओं के साथ 500 से 1000 की संख्या में ये इकठ्ठे होते थे और दूर से ही मराठा सेना पर अपनी कुल्हाड़ियाँ चमकाते। मराठा सेना जैसे ही पास आती,ये जंगलों में छिपकर घात लगाकर वार करते थे। ये पहाड़ियों या पेड़ों पर चढ़कर नगाड़ा बजाते थे,जिससे अबूझमाड़ियों की सेना चारों ओर से आकर मराठों की सेना को घेरकर उन पर बाणों की बौछार करती थी। अबूझमाड़िया धावड़ा-वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते थे। पत्तों के सूखने के पहले वर्ग-विशेष को विद्रोहियों के पास जाने की हिदायत थी। इस प्रकार पूरे माड़ अंचल में आँदोलन की चिंगारी फैल गयी थी।

     गैंदसिंह और उनके साथियों पर जो मुकदमा चला था उसके आधार पर विद्रोहियों के क्रियाविधि को समझा जा सकता है। पराधीनता से मुक्ति के लिए, किस हद तक उनका आक्रोश फूटता था। जब ये किसी मराठा या अंग्रेज को पकड़ते थे, तो उसका बोटी-बोटी काट डालते थे। विद्रोह का संचालन अलग-अलग टुकड़ियों में मांझी लोग करते थे। रात्रि में सभी आँदोलनकारी किसी गोटुल में एकत्र होते थे और वहीं से अगले दिन का प्रोग्राम निश्चित होता था। इनके मुक्ति आँदोलन का मुख्य लक्ष्य मराठा सरकार द्वारा लगाए गए टैक्सों का विरोध तथा अंग्रेजों के दमन से मुक्ति पाना था। इनका विरोध इस बात पर भी था कि बस्तर के राजा को जमींदार की स्थिति में लाकर बिठाया दिया गया तथा बस्तर के पुराने जमींदारों की अस्मिता पर प्रहार किया गया था। गाँव के शोषणकर्ता ठेकेदारों को पकड़कर ये मार डालते थे। ये उन लोगों को नहीं सताते थे, जो उन्हें बराबरी का दर्जा देते थे। इनके प्रति असम्मान जताने वाला प्रत्येक इनकी सूची में होता था, जिसे ये समाप्त कर देते थे।

    परलकोट विद्रोह यहाँ की अबूझमाड़ियों का विदेशी सत्ता को धूल चटाने के लक्ष्य से हुआ था। यह बस्तर को गुलामी से मुक्त कराने का प्रयास था। विद्रोह की तीव्रता को देखते हुए एगन्यू ने 4 जनवरी 1825 ई. को चांदा पुलिस अधीक्षक कैप्टेन पेव को निर्देश दिया, ताकि आँदोलन को दबाएँ, जिसके फलस्वरूप मराठों और अंग्रेजों की सम्मिलित सेना ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट को घेर लिया। गैंदसिंह बंदी बना लिए गए तथा 20 जनवरी 1825 को उन्हें परलकोट महल के सामने फाँसी दे दी गयी। अपने स्वाभिमान तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए स्व.श्री गैंदसिंह नायक शहीद हुए। इस वंश के अंतिम जमींदार श्री चेतनसिंह नायक ने 1910 ई.में अंग्रेजी दमनकारियों के खिलाफ जैविक युध्द किया था। बताया जाता है गाँव में आँदोलन के दमन के लिए फौजी टुकड़ी को प्रवेश से रोकने के लिए अबूझमाड़ के आदिवासी धूँआ करके शहद के मधुमक्खियों को उद्वेलित करते थे। मधुमक्खियों के काटने से अंग्रेजी फौज के सिपाही अपनी प्राण रक्षा के लिए वापस भागने विवश हो जाते थे।      

  

*बस्तर के इतिहास के संदर्भ में गैंदसिंह*


   जमींदार गैंदसिंह के जन्म स्थल के विषय में मतैक्य नहीं है। परन्तु लोगों का मानना है कि जमींदार गैंदसिंह का जन्म परलकोट में सन् 1778 में हुआ था। उन्होंने स्थानीय स्तर पर शिक्षा ली, नैतिक शिक्षा के साथ-साथ उन्हें राजनीति की शिक्षा भी मिली थी। पिता की मृत्यु के बाद परलकोट जमींदारी का जमींदार गैंदसिंह बना।

   सन् 1800 ई.के पूर्व बस्तर को दो भागों में बाँटा गया था- बस्तर जमींदारी और खालसा जमींदारी। इन्द्रावती नदी का दक्षिणी भाग बस्तर जमींदारी और उत्तरी भाग खालसा जमींदारी कहलाता था। इन जमीदारियों या रियासतों में उनके छोटे-छोटे जमीदारियाँ गढ़ के रूप में शामिल थीं। खालसा जमींदारी में परलकोट भी वैसे ही हल्बा जमींदार गैंदसिंह के प्रभुत्व में था। सन् 1901 में प्रशासनिक मूल्यांकन के आधार पर इस जमींदारी का क्षेत्रफल 640 वर्गमील था, जिसमें गाँवों की संख्या 165 और जनसंख्या 5920 थी। परलकोट नदियों और पहाड़ों से घिरा हुआ था। पहाड़ के ऊपर राजा का महल था अब वहाँ मात्र खंडहर के रूप में अवशेष हैं। बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर था और रियासत का राजा उन दिनों महिपाल देव था, जो राजा भंजदेव का वंशज था। बस्तर रियासत के सभी जमींदार एवं खालसा जमींदारी के समस्त जमींदार या राजा जगदलपुर के राजा का प्रभुत्व स्वीकारते थे और उन्हें लगान या कर दिया करते थे। खालसा की भूमि राजा की स्वाधीन होती थी परन्तु जगदलपुर(बस्तर) के नियंत्रण में होते थे। बस्तर जमींदारी और खालसा जमींदारी का केन्द्र जगदलपुर थी। जगदलपुर का राजा ईस्ट इंडिया कम्पनी का आधिपत्य स्वीकार कर चुका था। वह बस्तर जमींदार और खालसा जमींदारी का कर या लगान वसुलकर ईस्ट इंडिया कम्पनी को जमा करता।

     अंग्रेजी व्यापारिक कम्पनी के कर्मचारी सन् 1785 से प्रशासक बन बैठे थे। धन कमाना उनका प्रमुख लक्ष्य था। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने 1775 में नन्दकुमार बंगाली ब्राह्मण को फाँसी पर लटका दिया। सन् 1775 में ही अवध के बेगमों का धन लूट लिया गया। सन्  1779-80 में चेतसिंह को फँसाया गया। लार्ड कार्नवालिस ने ईस्तमरारी बंदोबस्त लागू करके जमींदारों को हमेशा के लिए जमीन दे दिया और लगान भी निश्चित कर दिया गया। लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि अपनाया। दक्षिण के राजा निजाम से सहायक संधि करके उसे अंग्रेजी कम्पनी के नियंत्रण में रखा गया। सन् 1817-18 में महाराष्ट्र के पेशवा और नागपुर के भोंसले का राज्य भी अंग्रेजी गवर्नर जनरल के शासन में शामिल हो चुके थे। लार्ड हेस्टिंग्ज ने सुधार के नाम पर रैयतवाड़ी प्रथा लागू किया और छत्तीसगढ़ के समस्त गढ़ों को अपने नियंत्रण में ले लिया। छत्तीसगढ़ पर शासन करने के नीयत से अनेक मेजर और अधिकारी नियुक्त किये गये जिनमें,


1. एडमड्स हैरिट- सन् 1818


2. मेजर एगन्यू-  21 जुलाई 1818 से 1826


3. केप्टन हन्टर - सन् 1826 से कुछ समय


4. केप्टन सेंडस - सन् 1826 से 1828


5. केप्टन विल्किन - सन् 1829


6. केप्टन क्राफ्ट - सन् 1830 तक


    मेजर एगन्यू के कार्यकाल में परलकोट का जमींदार गैंदसिंह था। भोपालपट्टनम में - यादव राव जमींदार था,मानपल्ली में- बाबूराव जमींदार था, आरामपल्ली जमींदारी में - वेंकटराव जमींदार था।

     बस्तर रियासत में बस्तर जमींदार और खालसा जमींदार में आवागमन का पूर्ण अभाव था। आवागमन और आयात-निर्यात का मुख्य साधन बैलगाड़ियाँ थीं। बस्तर जमींदारी और खालसा जमींदारी के लाख,धूप,मोम,गोंद, सींग,चावल,तिखुर, गुड़,सागौन की लकड़ी, रेशम,कोआ आदि का संग्रहण जगदलपुर में होता था और भोपालपट्टनम एवं रायपुर मार्ग से निर्यात किये जाते थे। नमक,नारियल, मसाला,अफीम, कागज, गोल मिर्च, कपड़े,गेहूँ आदि रायपुर से आयात किये जाते थे। निजाम रियासत से कपड़े,तम्बाकू, अफीम आदि बस्तर में आयात होते थे। क्रय का मूल्य चावल या कौड़ियों से दिया जाता था। ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार 20 कौड़ियों का मूल्य 1 बोरी, 12 कौड़ियों का मूल्य 1 दोगानी और 12 दोगानी का मूल्य 1 रूपया होता था।

      जमींदार गैंदसिंह जगदलपुर के राजा के अधीन था, वह अपनी जमींदारी से लगान वसूल कर जगदलपुर नरेश के पास जमा करता था। सन् 1823-24 में जगदलपुर नरेश को भूमि कर नहीं मिल पाया। उसने अंग्रेज अधिकारी मेजर एगन्यू को इसकी शिकायत कर दी। गैंदसिंह अंग्रेजी प्रशासन से पहले से ही नाराज था,क्योंकि :-


1. आदिवासी जमींदारी से वनोपज, चावल,गुड़,रेशम,कोआ बाहर निर्यात होते थे, उसका उचित मूल्य हल्बा, माड़िया, गोंड़ आदि जनजातीय लोगों को नहीं मिलता था।


2. क्षेत्र में रैयतवाड़ी बन्दोबस्त लागू करके किसान एवं जमींदारों का अधिकार छिन लिया गया था।


3. किसी भी जमींदार को अन्य जमींदार से मित्रता करने या किसी के विरुद्ध लड़ाई का अधिकार नहीं था।


4. आवागमन की असुविधा के कारण अबूझमाड़िया लोगों में एवं हल्बा जाति के लोगों में संगठन नहीं बन पाया था।


5. गैंदसिंह हल्बा जनजाति का अकेला जमींदार था इसलिए उसकी उपेक्षा होती थी।


6. अबूझमाड़ की संस्कृति एवं परस्परता को अंग्रेजों से खतरा था।


7. जमींदारों को सेना रखने या सिपाही पद में भर्ती करने की पूर्ण मनाही थी।

     उपरोक्त कारणों से जमींदार गैंदसिंह जगदलपुर के नरेश से और अंग्रेज प्रशासन से नाराज था। उसने अपनी जमींदारी की सुरक्षा हेतु और आर्थिक क्षति को बचाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासक के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बना ली। उसने अबूझमाड़ में एकता व संगठन बनाना आरंभ कर दिया,अबूझमाड़ के लोगों में राजभक्ति की भावना जागी। नि:संदेह आदिवासी राजा को सर्वाधिक महत्व देते थे,राजा लौकिक शक्ति में सर्वोपरि होता था। अबूझमाड़िया पुरूष-स्त्रियाँ गैंदसिंह के योजना के अनुसार परलकोट में एकत्रित होने लगे। रमोतीन बाई भी महिलाओं का नेतृत्व कर रही थी। युध्द के आधार-


1. तीर-कमान,


2. देवी-देवताओं की शक्ति,


3. मंत्र-तंत्र एवं मधुमक्खियाँ।


            संगठन एवं एकता बनने की भनक अंग्रेज अधिकारियों को लगी। अंग्रेज अधिकारियों ने पुलिस अधीक्षक एगन्यू को इसकी पूर्ण जानकारी दी। वह घबरा गया और मराठा सैनिक, चांदा के पुलिस अधीक्षक केप्टन पेव और अंग्रेज सैनिकों के द्वारा परलकोट घेर लिया। जमींदार गैंदसिंह ने अपनी जमींदारी की सुरक्षा, अपनी जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ाई की घोषणा कर दी। जमींदार सैनिकों के पास तीर-कमान ही अस्त्र-शस्त्र थे। अंग्रेज सैनिकों के विरुद्ध मंत्र-तंत्र से मधुमक्खियों का प्रयोग करते थे। अंग्रेज सैनिक और मराठा सैनिकों के आधुनिक अस्त्रों के सामने गैंदसिंह के सैनिक नहीं टिक सके। जमींदार पकड़ लिया गया। अंत में उसे परलकोट में उसके राजमहल के सामने फाँसी दे दी गई। परलकोट 1886 में प्रतापपुर तहसील व थाना था, जमींदार परलकोट सितरम में स्थानांतरित हुआ। आज परलकोट काँकेर जिला के पखांजूर तहसील में वीरान ग्राम दर्ज है। केवल कुछ खंडहर (भग्नावशेष) और पुरातत्व की सामाग्री के साथ विलुप्त अवस्था में है फिर भी अमर शहीद गैंदसिंह नायक जी की वीरता और अपनी मिट्टी के प्रति उनमें कृतज्ञता की भावना को देश हमेशा-हमेशा याद रखेगा।


संकलन:- *मुकेश बघेल (शिक्षक)*

आदिम जनजाति शोधकर्ता दुर्गूकोंदल (कांकेर ) छत्तीसगढ़

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